छत्तीसगढ़ // राजनीतिक विश्लेषक और समाजसेवी प्रकाशपुंज पांडेय ने झारखंड विधानसभा चुनाव के नतीजों पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा है कि विधानसभा चुनाव 2019 में ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन पार्टी यानी आजसू के सत्तारूढ़ गठबंधन से बाहर निकलने का भाजपा को खामियाजा भुगतना पड़ा। वहीं, विपक्षी दलों झामुमो, कांग्रेस और राजद का महागठबंधन एकजुट रहा। उसने समय रहते सीटों का बंटवारा किया। भाजपा के आक्रामक प्रचार के विपरीत सुदूर इलाकों में रैलियां कीं और गठबंधन के नेताओं के साथ मंच साझा किया। इन्हीं वजहों से महागठबंधन के दलों को पिछली बार के मुकाबले 14 सीटों का फायदा हुआ और उसने भाजपा से सत्ता छीन ली।
1. भाजपा का वोट शेयर लोकसभा चुनाव में 51% था, विधानसभा चुनाव में 33% रह गया –
7 महीने पहले मई 2019 में जब लोकसभा चुनाव के नतीजे आए थे, तो भाजपा ने 51% वोट हासिल कर 54 विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त बनाई थी। 35 विधानसभा क्षेत्रों में भाजपा की लीड 50 हजार से अधिक थी। इनमें 16 विधानसभा क्षेत्रों में लीड मार्जिन 90 हजार से ज्यादा था। भाजपा ने राज्य की 14 में से 11 लोकसभा सीटें भी जीती थीं। आजसू भी उसके साथ जिसे 1 सीट मिली थी। इसी वजह से भाजपा को झारखंड में सत्ता में वापसी की उम्मीद थी। झारखंड का ट्रेंड भी बताता है कि लोकसभा चुनाव की तुलना में विधानसभा चुनाव में भाजपा का वोट शेयर लगभग 10% गिरता है। इस हिसाब से भाजपा का वोट शेयर 51% से घटकर 41% पर टिकता, तो भी वह सत्ता में वापसी कर लेती। लेकिन कुर्मी-कोयरी समेत पिछड़े और दलितों के बीच ठीक-ठाक आधार रखने वाली सहयोगी पार्टी आजसू उससे छिटक गई। उसे चुनाव में 8% वोट मिले। नतीजा यह हुआ कि भाजपा का वोट शेयर भी अनुमानित 41% से 8 फीसदी और कम होकर 33% पर रह गया।
2. रघुवर दास की जमीन खिसकी –
राज्य में पिछड़ा बहुल 26 विधानसभा क्षेत्रों से भाजपा को सत्ता हासिल होती थी, वहां उसे सबसे ज्यादा घाटा हुआ। पूर्वी जमशेदपुर में अवैध 86 बस्तियों को नियमित बनाने का सवाल ऐसा तना कि मुख्यमंत्री रघुवर दास का आधार ही खिसक गया। वे इन बस्तियों को नियमित नहीं कर पाए। नतीजा यह हुआ कि वे जमशेदपुर पूर्वी सीट पर अपनी ही सरकार में कभी मंत्री रहे सरयू राय से पिछड़ गए। उधर, भाजपा के लक्ष्मण गिलुआ भी चक्रधरपुर में तीसरे स्थान पर खिसक गए।
3. भाजपा सरकार से आदिवासी नाराज़ हुए –
जल-जंगल-ज़मीन के सवाल पर आदिवासी सरकार से नाराज़ थे। राज्य में उद्योगों के लिए लैंड बैंक बनाए जा रहे थे। आदिवासी इस ज़मीन को अपना मानते थे। छोटा नागपुर टेनेंसी एक्ट और संथाल परगना टेनेंसी एक्ट में सरकार ने संशोधन की कोशिश की थी। आदिवासी मान रहे थे कि उनकी ज़मीन उद्योगों को देने के लिए यह कोशिश हो रही है। भारी विरोध के चलते इन क़ानूनों में संशोधन तो नहीं हुआ, लेकिन आदिवासियों की नाराज़गी बढ़ गई। अनुसूचित जनजाति के लिए सुरक्षित 28 सीटों में 20 झामुमो-कांग्रेस गठजोड़ के खाते में गईं। भाजपा को यहां 5 सीटों का सीधा नुकसान हुआ। सत्ता में रहते हुए पारा शिक्षकों, आंगनबाड़ी सेविका-सहायिका की नाराज़गी केंद्रीय योजनाओं के बूते हुए विकास के काम पर कुछ ऐसी भारी पड़ती दिखी कि प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री की डबल इंजन की सरकार की गुहार काम नहीं आई। साथ ही भाजपा का फोकस केंद्र की योजना पर ही रहा। भाजपा ने पूरे चुनाव में केंद्रीय योजनाओं की डिलिवरी जैसे आयुष्मान भारत, उज्ज्वला योजना, किसान सम्मान राशि का प्रचार किया था। प्रधानमंत्री ने अपनी कुछ फ्लैगशिप योजनाओं को भी झारखंड से ही लॉन्च किया था। राम मंदिर, नागरिकता कानून जैसे मसले उठाए। इनमें कहीं भी स्थानीय लोगों से जुड़े सवाल नहीं थे। शिक्षकों, आंगनबाड़ी सेविकाओं के मुद्दों पर उन्होंने बात नहीं की।
4. महागठबंधन पहले से तैयार था, चुनाव घोषित होते ही भाजपा से दूर हुई आजसू –
झामुमो-कांग्रेस-राजद गठजोड़ ने चुनाव घोषणा से पहले ही सीटों का बंटवारा कर जमीन पर कवायद शुरू कर दी थी। वहीं, भाजपा-आजसू गठजोड़ चुनाव घोषणा के बाद टूटा। आजसू पिछले 5 साल भाजपा के साथ सत्ता में थी। सीटों के बंटवारे के सवाल पर भाजपा ने पुराने सहयोगी आजसू पार्टी को खोया। भाजपा ने मंत्री सरयू राय का टिकट काट दिया। दूसरे दलों से आए नेताओं को भी टिकट दिए गए। ये दोनों ऐसी चूक थीं, जो चुनावी हवा का रुख भाजपा के खिलाफ करने में मददगार साबित हुईं।
5. महागठबंधन ने गुरिल्ला प्रचार शैली अपनाई, बड़ी रैलियां नहीं कीं –
भाजपा के बड़े नेताओं की कारपेट बॉम्बिंग शैली में किए गए प्रचार के उलट गठबंधन के नेताओं ने प्रचार की गुरिल्ला शैली अपनाई। बड़ी सभाएँ नहीं कीं। सुदूर इलाकों में कई-कई बार हेलिकॉप्टर से उतरे। अलग-अलग प्रचार किए। मौका देख मंच साझा किया। उनकी रणनीति कामयाब रही।
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