बिलासपुर, 5 अगस्त 2025
राइट टू एजुकेशन पर हाईकोर्ट की सख्ती… “बच्चों के भविष्य से खिलवाड़… अवैध स्कूलों पर चुप क्यों है सरकार, मांगा जवाब…
छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने राइट टू एजुकेशन (RTE) अधिनियम के उल्लंघन और अवैध स्कूल संचालन को लेकर राज्य सरकार और शिक्षा विभाग को आड़े हाथों लिया है। मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने सोमवार को हुई सुनवाई के दौरान कहा कि बच्चों के भविष्य से खिलवाड़ बर्दाश्त नहीं किया जाएगा और इस तरह की लापरवाहियां शिक्षा के अधिकार कानून की खुली अवहेलना हैं।
कोर्ट की सख्त टिप्पणी
सुनवाई के दौरान कोर्ट ने तीखी टिप्पणी करते हुए कहा “आज गली-गली में मर्सडीज में घूमने वाले लोग बिना मान्यता के स्कूल खोल रहे हैं। इन स्कूलों में न तो आधारभूत सुविधाएं हैं, न प्रशिक्षित शिक्षक और न ही कोई नियामक नियंत्रण। यह न केवल आरटीई कानून का उल्लंघन है, बल्कि सामाजिक अपराध भी है।”
कोर्ट ने यह भी संकेत दिया कि ऐसे स्कूलों में दाखिले से वंचित गरीब बच्चों को 5-5 लाख रुपये तक का मुआवजा दिया जाना चाहिए, क्योंकि यह उनके शिक्षा के अधिकार और भविष्य पर सीधा आघात है।
मामला क्या है ?
इस जनहित याचिका में आरोप लगाए गए हैं कि बिलासपुर सहित प्रदेश के कई हिस्सों में बिना मान्यता प्राप्त निजी स्कूल संचालित हो रहे हैं। ये स्कूल न केवल शिक्षा विभाग की अनुमति के बिना चल रहे हैं, बल्कि राइट टू एजुकेशन (RTE) अधिनियम के तहत गरीब तबके के बच्चों को प्रवेश देने से भी इंकार कर रहे हैं।
इसके अलावा, इन स्कूलों पर यह भी आरोप है कि वे मनमानी फीस वसूलते हैं और सरकार द्वारा तय दिशा-निर्देशों की अनदेखी कर रहे हैं।
कोर्ट के निर्देश
हाईकोर्ट ने राज्य सरकार और प्रमुख शिक्षा सचिव को निर्देशित किया कि वे 13 अगस्त 2025 तक शपथपत्र (अफिडेविट) के माध्यम से निम्नलिखित बिंदुओं पर स्थिति स्पष्ट करें
1. अब तक क्या कदम उठाए गए हैं ऐसे अवैध स्कूलों के खिलाफ?
2. कितने स्कूल बिना मान्यता के संचालित हो रहे हैं? इनकी पूरी सूची कोर्ट में पेश की जाए।
3. इन स्कूलों के विरुद्ध अब तक क्या कार्रवाई की गई है? चालान, जुर्माना, बंद करने की कार्यवाही आदि।
4. भविष्य में इस तरह की गड़बड़ियों से निपटने के लिए सरकार की नीति और कार्य योजना क्या है?
कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यह मामला केवल कानूनी नहीं बल्कि व्यापक जनहित से जुड़ा है।
शिक्षा विभाग की जिम्मेदारी
छत्तीसगढ़ में 6 से 14 वर्ष तक के बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा उपलब्ध कराना राज्य की संवैधानिक जिम्मेदारी है। यदि इस आयु वर्ग के बच्चों को प्रवेश से वंचित किया जाता है या शिक्षा के निम्न स्तर वाली व्यवस्था में डाला जाता है, तो यह शिक्षा के अधिकार कानून (RTE Act, 2009) का स्पष्ट उल्लंघन है।
सामाजिक और नैतिक चिंता
यह मुद्दा सिर्फ शिक्षा का नहीं है, बल्कि सामाजिक न्याय और समान अवसर से भी जुड़ा है। जब गरीब और पिछड़े वर्ग के बच्चों को शिक्षा से दूर रखा जाता है, तो यह समाज में असमानता को और गहराता है। कोर्ट ने इस पहलू को विशेष रूप से रेखांकित किया और कहा कि ऐसे मामलों को गंभीरता से लिया जाना चाहिए ताकि आने वाली पीढ़ियों का भविष्य सुरक्षित रह सके।
शिक्षा सिर्फ सुविधा नहीं हर बच्चे का अधिकार
उच्च न्यायालय की सख्ती ने एक बार फिर यह स्पष्ट कर दिया है कि शिक्षा सिर्फ एक सुविधा नहीं, बल्कि हर बच्चे का अधिकार है। राज्य सरकार को अब यह तय करना होगा कि वह इस दिशा में कितनी गंभीर है और कैसे इस शिक्षा माफिया पर नकेल कसेगी। अब सभी की निगाहें 13 अगस्त की सुनवाई पर टिकी हैं, जहां सरकार को कोर्ट के सवालों का जवाब देना होगा सिर्फ शब्दों में नहीं, बल्कि ठोस कार्रवाई के साथ।
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